अपनों को जाना, परायों को समझा-2
पैसों में उलझा, कामनाओं में बीधा,
रहा जीवन भर आपाधापी में l
फिर भी, ख़ुद से न की, कभी बात लेकिन l
दूसरों से छीनकर अपनों पर लुटाना,
समझ न आई ये बात लेकिन l
कुछ भी पा लो, कमी तो रह ही जाती है,
दौड़ धूप में व्यर्थ जीवन गँवाया l
फिर भी, ख़ुद से न की, कभी बात लेकिन l
बारिश में भीगो, परिंदों सा उड़ो,
मिट्टी में उतरो नंगे पैर फिर से l
क्या जाने कब फूट जाये बुलबुला ये?
अरे, लेकिन को छोड़ो, काश को गोली मारो,
ख़ुद से बात करो , फिर नई शुरुआत करो -2
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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