तुझसे मिली खुशियाँ क़ुबूल हैं जब,
तो फिर ग़म से भी, नहीं है एतराज़ l
आती है ख़ुशबू गुल से जब,
तो शूल जो दर्द मिले, वो भी हैं स्वीकार l
उतरती रौशनी से जगमग हूँ जब,
तो अमावस की, रात भी है स्वीकार l
हँसी का खज़ाना, जीभर मिला जब,
तो आँसुओं से भरी, मुफ़लिसी भी है स्वीकार l
मिली है दृष्टि, सब साफ़ दिखता है जब,
तो माया की, धुंध भी है स्वीकार l
जो भी मिला है अमृत, तुझसे ही मिला है,
तो अपने कर्मोँ का, हलाहल भी है अब स्वीकार l
तूने ही सम्हाला हुआ है सब, जानता हूँ मैं अब,
तू ही है मुझमें भी, तेरा मुझमें यूँ होना, है अब हृदय स्वीकार lअब मैं भी हूँ सरोबार l अब मैं भी हूँ सरोबार l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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