ख़ुद को सही बताने की ज़िद में,
खो देता हूँ मौका-ए-बेहतरी अक्सर l
सुन लेना उसको, सुकून से इस क़दर,
कि जानते हुए सबकुछ भी, कुछ नया सा लगे l
हो जाती है फ़ना, ज़माने को पा लेने कि, ये ज़िद मेरी,
जब भी फ़कीर सी मुफ़लिसी, होती है रौशन मुझमें ll
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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