न समझ हैं जो बकते रहते हैं, ये जताने को,
कि वो समझदार हैं l
न जाना उसने कुछभी, अगर जग को जीतकर भी,
रह जाये ये प्रश्न, कि मैं हूँ कौन?
आ जाता है समझ मैं जिसके कुछ,
अक्सर वो रह जाता है मौन l
समझ के नहीं किया जा सकता कुछ भी ग़लत,
और न समझी में किया यज्ञ भी, हो जाता है व्यर्थ l
मेरी समझ में, आवश्यक नहीं समझदार होना,
और जो सरल न हो सका, उसका तो होना ही है व्यर्थ l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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