जब मैं बात करता हूँ,
तो कह नहीं पाता, जो कहना चाहता हूँ,
और जो रह जाता हूँ मौन तो,
कहते हैं लोग कि कुछ कहता नहीं l
वो कहते हैं पागल है, उल्टा चल रहा है ज़माने से,
और मैं कहता हूँ,
जी हुज़ूरी दुनिया की करके क्या पा लिया तुमने l
जीवन की असली पूँजी ‘समय‘ गँवा रहे हो,
जो इक्कट्ठा कर भी लिया सब, तो जिओगे कब l
ज़रुरत सब की पूरी होती है, इक्छाएं नहीं,
कभी कम नहीं होता जो मिला हुआ है,
और के चक्कर में, जो प्राप्त है उसे भी गँवा रहे हो l
मृत्यु के क्षण, व्यर्थ गंवाये जीवन की कीमत तो पता चल ही जाती है, मैं कहता हूँ कि जीवित रहते जागो, तो कहते हैं अभी समय नहीं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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