जितना दुनिया मुझे ठुकरा रही है,
जितना माया मुझे उलझा रही है,
जितना कम हो रहा है व्यर्थ के संबंधों से लगाव,
जितनी कम हो रही है भौतिकता की मिठास,
उतना शिव आ रहे हैं मेरे पास l
उतना शिव आ रहे हैं मेरे पास l
तेरा बोध ऐसी पूँजी है, तेरा बोध ऐसी पूँजी है,
जिसपर गँवा सकता हूँ मैं अपनी हर आस l
और, बुद्धि जनित शंका अब हो रही है निराश,
हर प्रश्न, हर विरोध, लारहा है मुझे शिव के और पास l
शिव आ रहे हैं मेरे पास l शिव आ रहे हैं मेरे पास l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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