एक छोटीसी कहानी है, जो मुझे, आपको सुनानी है...
माँ बोली.. जब तू मेरी कोख में था... मेरी ख़ुशी का ठिकना न थाl वैसे तो मैंने तुझे जन्म दिया..पर जब तू मेरी गोद में आया, तब ही पहली बार, मैंने अपने अंदर की माँ को पहचाना था l पिता बोलेl आज से पहले मैं पुत्र, पति और भाई थाl तू आया मैं पिता हुआl क्या बताऊँ? क्या मुझमें पूरा हुआ? जो न जाने कब से अधूरा थाl ये क्या हुआ अचानक...सब टूट गया..सब छूट गयाl तुझे यूँ न तिरंगे में लिपट के आना थाl अभी तो कुछ साल ही बीते थे.. हमें तो तेरे साथ अपना बुढ़ापा भी जीना थाl गर्व है हमें कि चुका दिया मातृ भूमि का कर्ज़ तूनेlपर हमारी आस को तोड़कर,तुझे यूं न जाना थाl न जाने कितनी माओं ने, अपनी आस को खोयाl न जाने कितने पिताओं ने, अपने काँधे पर जवान पुत्र की लाश को ढोयाl न जाने कितनी ही दुल्हनों ने, अपने सुहाग को खोया हैl
"तब जाके कहीं हमनें जीने की आज़ादी को पाया है l"
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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