उनकी ग़रीबी देखकर कहा मैंने, पढ़ो लिखो बना लो अपना घर l
देखकर मेरा दर, वो कहते हैं, छीन लेंगे एकदिन तुमसे, बना लेंगे तुम्हारे घर को अपना घर l
मैंने पूछा, क्या है जो तुमको, इतना नीचे गिरता है, तुम्हारी क़ाबलियत पर प्रश्न चिन्ह लगाता है l
वो कहते हैं एक क़िताब है, जिसमें छिपे सारे ज़बाब हैं, नहीं संभव उसमें बदलाब है l
मैंने कहा मौत के अलावा, एक ही बात तो है निश्चित और वो जीवन में निरन्तर बदलाव है l
उसने कहा मानता नहीं जो इस क़िताब को, जीने का नहीं उसको अधिकार है l
मैंने कहा 'वाह वाह वाह', तलवार की पड़े ज़रूरत जिसे, समझाने को अपनी बात l
कैसी बचकानी, खोखली और ज़ाहिल सी है ये क़िताब l मैंने पूछा, किया क्या इंसानियत के लिए,
इस क़िताब ने, नहीं था उनके पास कुछ भी ढंग का,
बताने के लिए इस प्रश्न के ज़बाब में l
उजड़े गांव, टूट आस्था-स्थल, रक्त-रंजीत खेत-खलियान और ज्ञान संग्रह के जलते अलाव,
इन्सानियत की छाती पर छोड़े सबसे गहरे घाव l
इसके अलावा नहीं मिला मुझे कोई और जबाब ll
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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