उखड़ भी गया, अपने कर्मों की बाढ़ से तो भी,
धरा पर गिर, बीज से फिर वृक्ष हो जाऊँगा l
न मिली सरिता, सागर तक पहुंचने के लिए तो भी, टिका रहूँगा आँधी, तूफ़ान, अकालों में, करके अपनी जड़ों को गहरा l
अपने बीज़ से, 'वन' बना सागर को रिझाऊँगा,
बूँदों सा एक दिन उसको, ख़ुद पर बरसाऊँगा l
वृक्ष हूँ, धरा से जुड़कर ही,
एक दिन गगन को पा जाऊँगा l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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