मुझे स्वीकार है,
मेरी हर आलोचना और उलाहना,
हर कष्ट और प्रताड़ना,
हर अपमान और असफलता,
हर तिरस्कार और हार,
कर्मों के कर्ज़ से न बच सका है कोई,
मुक्ति के हैं दो ही उपाय,
पराक्रमी है तो स्वीकार कर,
सरल है तो समर्पण कर,
दोनों ही स्थिति में,
रुक मत चलता रह आगे बढ़,
रुक मत चलता रह आगे बढ़ |
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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