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रौशनी की जाये

डूबे हो अग़र, ग़म के अधेरों में इस क़दर,

कि क़िस्मत-ए-सहर की भी, कोई अब आस नहीं,

ख़ुद को जलाकर, क्यों न रौशनी की जायेl


जो अभी थके नहीं, जिनमें बाकी है आस,

क्यों न, उनकी राहों को रौशन किया जाये,

हारी हुई ज़िंदगी को भी, कुछ मक़सद दिया जाये,

ख़ुद को जलाकर क्यों न, रौशनी की जायेl


टूटे हुए मकां के पत्थरों से क्यों न,

किसी नए घर की नींव भरी जाये l

सूखे हुए दरख्तों से क्यों न, चूल्हे रौशन किये जाएँ l


अरे मुर्दा क्या करेगा कफ़न का,

जो ज़िंदा है, उसका तन ढँका जाये l


हारी हुई ज़िंदगी को भी, कुछ मक़सद दिया जाये,

ख़ुद को जलाकर क्यों न, रौशनी की जायेl


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक


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