पूछते हैं लोग, जो भी करते हो वो करके,
क्या बदला तुममें?
मैं कहता हूँ, कड़वा हो या मीठा, हर सच स्वयं से, कहना सीख गया हूँ l
गलतियाँ तो अब भी होती हैं मुझसे, लेकिन पहले से बहुत कम l
जो कष्ट असहनीय थे पहले,
किसी तरह उन्हें स्वीकारकर, सह लेता हूँ l
ऐसा नहीं कि भविष्य का डर, सताता नहीं मुझे, पर थोड़ा बहुत वर्तमान में जीना, सीख ही लिया है मैंने l
और पाया है कि, आत्मा के अमृत-रस का आनंद, जीवन की परेशानियों, विपत्तियों और द्वन्द की कड़वाहट को स्वीकारे बिना, संभव नहीं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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