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लेखक की तस्वीरVivek Pathak

परिणिती

फिरता रहता था अँधेरी राहों पर, 

भटकता था अनजान शहरों में l

और पाने की चाह में, 

न जाने कितना ख़ुद को खोया हूँ, 

थक गया हूँ, चूर हूँ, न जाने आख़िरी बार, 

कब चैन से सोया हूँ l


जेब में है पैसा, पर ऊँचे महलों में अब वो रस नहीं,

अपना छोटा सा घर, अब माँ की गोद सा लगता है l


बदले में क्या मिलेगा किसी से, 

करने से पहले अब सोचता नहीं l

क्यों परिंदे को पिंजरे में रखूँ , 

बारिश-ओ-धूप बाग़ की, अब सुहानी लगती है l


वो कच्चा आम, वो खुली हवा में, लंबी न सही, पर बेफ़िक्र उड़ान, अब अच्छी लगती है l


विवेक गोपाल कृष्ण पाठक

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