फिरता रहता था अँधेरी राहों पर,
भटकता था अनजान शहरों में l
और पाने की चाह में,
न जाने कितना ख़ुद को खोया हूँ,
थक गया हूँ, चूर हूँ, न जाने आख़िरी बार,
कब चैन से सोया हूँ l
जेब में है पैसा, पर ऊँचे महलों में अब वो रस नहीं,
अपना छोटा सा घर, अब माँ की गोद सा लगता है l
बदले में क्या मिलेगा किसी से,
करने से पहले अब सोचता नहीं l
क्यों परिंदे को पिंजरे में रखूँ ,
बारिश-ओ-धूप बाग़ की, अब सुहानी लगती है l
वो कच्चा आम, वो खुली हवा में, लंबी न सही, पर बेफ़िक्र उड़ान, अब अच्छी लगती है l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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