खुल के बाँट रहे जो ‘जन’ को,
खोखले कानूनों की आड़ से l
सारी मानवता दबी जा रही, हैवानियत के पहाड़ से l
स्त्री का भोग, बच्चों का दुरूपयोग,
संबंध सारे बहे जा रहे, कामुकता की बाढ़ से l
सत्ता चाहिए, कब्ज़ा चाहिए, फिर क्या करना है पता नहीं, कैंसर को स्वास्थ्य समझ, निरंकुश हो दहाड़ रहे l
काली के क्रंदन को, वीरभद्र के भुज कंपन को,
हनुमत की हुंकार को, मूर्ख न पहचान रहे l
विनाश इतना भयानक होगा, कि भस्मी को कल्पों तक, जीवन जल का न स्पर्श मिलेगा l
कलि की इस चाल को, अब और न शय मिलेगी, सीधे मात से ही, अब नए युग का आंरभ होगा l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
Comments