सच है जो वेदों में लिखा है, कहता हूँ निज अनुभव से l
करके बार बार तौबा, चल पड़ता हूँ उन्ही राहों पर फिर से l
होती कमाई थोड़ी बमुश्किल और खर्चे बेहिसाब से l
जानता हूँ क्यों आया हूँ जग में, फिर भी भटकता हूँ चलते चलते राह से l
पाना-खोना, हँसना-रोना जो होता है राह में, कांधे पर उठाये फिरता हूँ l
परेशान हूँ चल नहीं पता, दबके इस बोझ तले l
सच है कि मंज़िल का मिलना मुमकिन नहीं, भोग न लूँ कर्मों का हिसाब जब तक l और कर पाऊँ कुछ ऐसा, कि न बीते का बोझ हो, न भविष्य का डर l
उतार के कांधे से ये गठरी, हो जाऊँ निडर
उतार के कांधे से ये गठरी, हो जाऊँ निडर
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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