ऐसे नहीं चलता कि तुम रूठती रहो, मैं मनाता रहूँ,
कभी मैं रूठूँ और तुम मनाओ, पर इसमें भी वो बात नहीं l
कभी ऐसा भी हो कि हम, दूर होकर भी नाराज़ न हों,
कि हम पास बैठें ख़ुशी से और कोई बात न हो l
की मेरी कमियों को तुम, गुलाब में काँटे की तरह स्वीकारो,
और मैं तुम्हारी कड़वी बातों को, नीम सा समझूँ l
ऐसा तो नहीं होता कि, सबकुछ दे सकें एकदूसरे को हम,
होता नहीं वैसा सबकुछ कभी, जैसा चाहें हम l
एकदूसरे को सुधारने कि जगह, क्या ये नहीं हो सकता?
कि जो हो एकदूसरे को पसंद, करें वो हम l
मुझे तो यही सही लगता है, तुम बताओ तुम्हें क्या लगता है?
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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