आज जो समझा हूँ, क़ाश वो समझ पहले से होती,
कोई नहीं होता किसी का, ये बात पहले से पता होती l
जीवन एक कर्ज़ है, जिसे चुकाना है हमें,
अगर पता होता तो, वक्त की ये कमाई, यूँ ख़र्च न की होती l
कुछ नहीं है पाने को यहाँ, अगर ये जनता तो,
इतनी मशक्कत ही न की होती l
ख़ैर सार बस इतना है, कि जो बदल न सको उसे स्वीकार करोl
और ज़ख्म जिनसे मिले हैं अगर वो अपने हैं, तो पलट के न वार करो l
टूट कर बिखरने की भी हो स्थिती,
फिर भी, जीवन का साथ न छोड़ो, इंतज़ार करो, इंतज़ार करो l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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