यूँ ही परेशां हूँ, कि ये न मिला वो न मिला,
पर जो मिला है उसे गिनता ही नहीं l
जब देखता हूँ ग़म दूसरों के,
तो लगते अपने ग़म कुछ भी नहीं l
भुगतता है यूँ तो, हर कोई अपने कर्मों का परिणाम,
पर जो सुख मिले हैं जीवन में,
उसे कोई गिनता ही नहीं l
दुःख में अगर आँसू और कष्ट है, -2
तो सुख में धन्यवाद क्यों नहीं l
जुटा लिया यहाँ, जितना भी समान है,
सुखी होने का ये नहीं प्रमाण है l
जो मिला, जितना मिला, जब भी मिला है,सर्वोचित है,
और अधिक के लिये प्रयास तो ठीक, होना परेशान मूर्खता का प्रमाण है l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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