हर किसी ने ज़िन्दगी में अपना अपना दॉंव खेला l -2
कुछ निकलगए आगे,बेचकर ज़मीर अपना, कुछ सही-ग़लत को तौलते रह गए, कुछ रहे ग़ुलाम क्रोध के, काम के हाथों, कुछ सिमट के रह गए l
किसीने दौलत केलिए सीमाओं को लाँघा,कई अहंकार में घुट के रह गए,कोई पिस गया इस द्वन्द में, कि आख़िर वो क्या करे?कोई पाके दौलत-ए-ज़ामना भी, मुफ़लिस रह गया l पर कुछ ने किया समर्पण, बह गए जल से,रुकावटों के बग़ल से,मिला जो सुख तो बाँटते गए और दुःखों को ईंधन बना, बढ़ते गए l
अरे सफ़र में ग़र जो न मिला, मंज़िल में भी न मिलेगा l
ढूंढ़ते हो जिस सुकून को वो, बाँटने में ही मिलेगा, ठहरने में ही मिलेगा और तुम्हारे भीतर ही मिलेगा l
ख़ुशनसीब हूं मैं, कि न तो इतनी दौलत मिली, कि ग़ुरूर करसकूँ और पाभी लिया इतना,कि बाँट सकूँl-2
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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