मैं किसी को, अब टोकता नहीं,
चलते पहियों को, अब रोकता नहीं l
हर कोई चलता है, अपनी ही समझ से,
क्या सही है, क्या ग़लत, बिन पूछे किसी को,
अब कुछ कहता नहीं l
हर किसी की गति है,हर किसी का गंतव्य,
जब तक न लगे ठोकर और खुल न जाएँ आँखे,
मैं ग़लत था, ये कोई कहता नहीं l
जो दृष्टि है प्राप्त, जो थोड़ा सा ज्ञान है,
मैं तो अभिभूत हूँ, पर अब, किसी पे ये थोपता नहीं, बिन पूछे किसी से अब, कुछ कहता नहीं l
लगा हूँ ख़ुद की उलझने सुलझाने में, सुलझ भी रही हैं,
उतर रही है जो रौशनी, उसमें नहाने को, किसी को अब कहता नहीं l
मैं किसी को, अब टोकता नहीं,
चलते पहियों को, अब रोकता नहीं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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