मांगते हैं जहान की सारी सहूलियत,
अपनी संतान के लिये ऐसे,
जैसे किसी और की तो औलाद ही नहीं l
बिछ जाये ज़माना क़दमों में उसके,
फिर हसरतों की क़ुरबानी कितनी भी हो औरों की, फ़िक्र नहीं l
औरों के रक्त से रंजित तुम्हारे स्वर्ण शिखर,
उनकी हार में चढ़ता माथे पर जीत का ज्वर,
नाँव कहीं से भी टूटी हो, सवार तुम भी हो,
सोचते हो डूबोगे नहींl
मिट गए कौरव, ख़ाख़ हुए राजवंश,
नाम बस उनका बाकी है,
जिनने औरों का भी सोचा सिर्फ ख़ुद का नहीं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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