आभारी हूँ उन कष्टों का, जिनसे मानव होने का भान हुआ l
नतमस्तक हूँ उस हार के सन्मुख,
जिसमें जीत की व्यर्थता का ज्ञान हुआ l
ऋणी रहूँगा सभी तिरस्कारों का,
कि जिससे स्वयं के सम्मान का बोध हुआ l
हर पीड़ा मित्र है मेरी,
कि कारण जिसके औरों का दर्द, मुझे आभास हुआ l
हर अँधेरा मेरा सहायक हुआ, जब कोई नहीं था साथ मेरे l
राधा ने बाँटा कृष्ण को,
मीरा ने विष पान किया,
हनुमत ने चीरा छाती को,
दधीचि ने जीवित अस्थि दान किया l
बिना समर्पण, बिना दिए, बिना स्वयं को अर्पित किये,
कहाँ किसी को कुछ प्राप्त हुआ l
आभारी हूँ, नतमस्तक हूँ, ऋणी रहूँगा पीड़ा तेरा,
तेरे ही कारण मुझे, मेरे ‘राम’ का संज्ञान हुआ l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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