वही दुनिया है, वही मैं भी हूँ, पर फिर भी,
पहले से सबकुछ अलग है l
दौलत है, शोहरत है, पाने को,
फिर भी ख्वाइश-ए-दिल, अब कुछ अलग है l
जुड़ा तो हूँ ज़माने से, पर मरासिम-ए-ज़माना,
अब कुछ अलग है l
तन्हा भी हूँ, हूँ भीड़ में भी, पर एहसास-ए-तन्हाई,
अब कुछ अलग है l
सुना तो था, कि तुझको पाना ख़ुद को खोना है,
पर ख़ुद से जुदाई का सफ़र और इतना ख़ुशनुमा,
ये राह और ऐसा रहगुज़र,
मंज़िल की चाह , अब कुछ अलग है l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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