कि जो इस दुनिया को अच्छी तरह समझते हैं, की जो मैं-मुझे-मेरा से बढ़कर औरों का दर्द भी समझते हैं, कि जो पशुओं को भी अपनी संतान सा समझते हैं, कि जो नहीं देख सकते अनाथ-लाचार को और अपने हिस्से कि खुशियाँ भी बाँटते फिरते हैं l
अक्सर लोग उन्हें पागल समझते हैं l
कि जो भूखे को भोजन देना, शिव का अभिषेख समझते हैं, कि जो बीमार-अपाहिज की सेवा को यज्ञ समझते हैं, कि जो सर्वधर्म समभाव के खोखले आख्यान नकार के, सनातनी होने पर गर्व करते हैं,
कि जो अपनी संस्कृति को, कमाई के साधनों से पहले रखते हैं, कि जो पूर्वजों के संघर्ष-समर्पण की लाज रखने को, अपना कर्तव्य समझते हैं l
अक्सर लोग उन्हें पागल समझते हैं l
हाँ अक्सर लोग उन्हें पागल समझते हैं l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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