जो मिली है बसीरत (प्रतिभा), बदले उसके दौलत मिले न मिले l
ज़हन में उतरी इस रोशनी को बांटकर, सुकूं चाहता हूँ l
भर जाता हूँ जब तेरी क़ुरबत (घनिष्ठता) के पानी से, सर तक,बहते अश्क़ों से हर तरफ़ हरियाली चाहता हूँ l
आफ़ताब-ओ-महताब, चराग़ों से लगते हैं, मेरे आगे,
जब तेरी रौशनी में नहाकर, घर से निकलता हूँ l
जब गोपाल-कृष्ण मेरे नाम में ही हैं, तो किसी और तख़ल्लुस (pen-name) की दरकार ही कहाँ ?
लिखूँ कुछ भी, हर बात में तू ही होता है, तू हवा मैं परचम हूँ, मेरी हर हरक़त, तेरा ही निशां होता है l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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