मिली है पीड़ा दुनिया से बहुत,
फिर भी न जाने क्यों? आस बाकी है l
जानता हूँ शराब-ए-दुनिया मार देगी एक दिन,
फिर भी रास्ता-ए-मयख़ाने की याद बाकी है l
कर-कर के तौबा हर बार भटका हूँ,
न जाने क्यों फिर भी, थोड़ा यकीन बाकी है l
ख़ुद का किया ही भुगत रहा हूँ शायद,
नहीं मिलेगा सुकून जब तक,
मुझमें ये ‘शायद’ बाकी है l
विवेक गोपाल कृष्ण पाठक
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